कुछ इंसानियत तू काश दिखाता
कुछ तो मज़बूरी रही होगी उसकी, काश तू इतना सोचता,ऐसी ही नहीं कोई किसी के घर में घुसता !रोकी जा सकती थी, रुक जाती यह क्रूरता,कुछ इंसानियत, अगर होती, तू काश दिखाता।चल खैर, माना की तुझमें ममता नहीं,गौवंशों को भी खाते तू दिखता है कहीं,पर यह तो तेरा अपना था, काम में तूने ही जोता था,कितना क्रूर कहु तुझे, जो पैसों को जिंदगी से है तोलता,काश! वह गर्भ का खिला हुआ फूल तेरा ह्रदय तुझे दिखाता,कुछ तो इंसानियत, अगर होती, तू काश दिखाता।माना तुझे जीवदया का मर्म नहीं,सत्कर्मो से निजता रखे ऐसा तेरा धर्म नहीं,दया नहीं तो कम से कम कुदरत के खौफ से खुद को डराता,कुछ तो इंसानियत, अगर होती, तू काश दिखात।
- Tirthrajsinh Zala
(The word "Dharma" in the third para second line doesnt necessarily mean RELIGION)